Trying out my first transliterated post , with this Hindi poem "Hum Panchhi Unmukt Gagan Ke" translated literally as "We birds, of the open skies". This is by SumitraNandan Pant , and I guess we had read this somewhere in our 7th-8th class school course books, and is probably one of the only 2-3 I remember still...
( Attempted translation will follow later.. )
हम पंछी उन्मुक्त गगन के ....
हम पंछी उन्मुक्त गगन के,
पिंजर बंध न गा पायेंगे,
कनक तीलियों से टकराकर,
पुलकित पंख टूट जायेंगे ..
हम बहता जल पीने वाले,
मर जायेंगे भूखे प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी,
कनक कटोरी की मैदा से ..
स्वर्ण श्रृंखला के बन्धन में,
अपनी गति उड़ान सब भूले,
बस सपनो में देख रहे हैं,
तरु की फुंगी, पर के झूले ..
ऐसे थे अरमान कि उड़ते,
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण सी चोंच खोल,
चुगते तारक, अनार के दाने ..
होती सीमा हीन शितिज से,
इन पंखो की होडा-होडी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता,
या तंती साँसों की डोरी..
नीड़ न दो, चाहे टहनी का,
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं तो,
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो
- सुमित्रानन्दन पन्त
Friday, April 04, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
A very beautiful poem...now days to get motivated we search for such stuff....
But we forget...in our school days...it was our staple diet..its just that we don't realize....
Hats off to Apeejay & the Poet (of course)
Rohit
Post a Comment